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कुछ २-२ १/२ साल का होगा उस समय मेरा बेटा, एक दिन वो मेरी माँ के साथ घूम रहा था, मम्मी ने इशारा किया, ‘देखो वो भैंस है’. वो बोला ,’ नानी वो भैंस नहीं बफैलो है’. माँ ने पूछा, “अच्छा, बताओ, क्या बोलने में ज्यादा मज़ा आता है, बफैलो या भैंस?” उसकी आँखों की शरारती चमक ने सब बयान कर दिया पर वो बोला,” मम्मी ने कहा है, यह बफैलो है.” बड़ी दुविधा है क्या समझाएं अपने बच्चों को,क्या पढ़ायें;कैसे कहें की हमारे लिए भैंस को भैंस और सेब को सेब कहना क्यूँ दुश्वार है,क्यूँ झिझकते हम हिंदी के प्रयोग में,क्यूँ अटपटी सी लगती है अपने देश की बोली हमें. ठीक ठाक हिंदी है मेरी और मेरे पतिदेव की, बलिक आज के प्रसंग में तो बहुतों से बेहतर; सोचा बेटा भी गुज़ारा कर ही लेगा, लाज रखेगा अपनी भाषा की. माँ कहती भी हैं कि हिंदी सिखाया करो और हम यह कह नज़रंदाज़ कर देते कि हिंदी तो सीख ही लेगा, अंग्रेजी सिखाने से ही आएगी, ज़रुरत ज्यादा अंग्रेजी कि ही होगी. खैर, एक दिन आया स्कूल से हमारा सुपुत्र, बोला,”मोंम, हिंदी बहुत टफ है, मुझे नहीं पढनी या फिर ट्यूशन लगा के दो”. मैंने बात आई गयी कर दी, इम्तिहान हुए, अंक मिले; पचीस में से चौबीस, चौबीस, पच्चीस और हिंदी में पन्द्रह. “पर मोंम, हिंदी में तो सबके कम आये हैं,हिंदी कौन पढता है, ट्यूशन के बिना तो बिलकुल समझ नहीं आ सकती”.मैं आग बबूला तो हुई,गुस्साई भी लेकिन शांति से सोचा तो महसूस किया कि कमी तो हम से ही रह गयी, गलत पाठ तो हम ही पढ़ा रहे हैं; पैदा होने पर लोरियों कि जगह बाबा ब्लैक शीप जैसी राहिम्स ने ले ली है, स्कूल जाने पे a , b ,c पूछी जाती है और इंग्लिश क्न्वेर्सय्ष्ण सिखाई जाती है.
हिंदुस्तान में हिंदी बोलने का मतलब है कि आप फूहड़ हो,गंवार हो, किसी अच्छे घर से नहीं हो.आपको अंग्रेजी बोलने में हिचकिचाहट हो तो खिल्ली उड़ाने वालो कि कमी नहीं,हिंदी ना आती हो तो आप ज़रूर फोरन रिटर्न्ड , एजुकेटेड क्लास के होंगे या फिर किसी रईस,पढ़े लिखे घर कि सन्तान! हिंदी आने में शर्म है, ना आने में गर्व कि बात. किसी दूकान में चले जाओ, दो शब्द बढ़िया सी अंग्रेजी के बोल दो , बस जी दुकानदार और उसके मुलाजिम आपके आगे पीछे घूमेंगे,ठंडा गरम पूछेंगे और आप कि खरीदारी के अनुभव को खुशनुमा बना देंगे, वहीँ हिंदी तो अब सब्ज़ीवाले भी बोल के खुश नहीं – “मैडम, पीज़ कितने दे दूं?, बनानास आये हुए हैं, टॉप क्लास.” आजकल अगर आप हिंदी बोलने वालों कि गिनती में हैं, तो या तो आप अंकल-आंटी हैं, कहीं देहात से आये हैं या ‘ बहनजी छाप’ के ठप्पे के हकदार. अपने देश में रह कर हिंदी बोलना दूभर है, परदेस में चाहे सड़क पे खड़े हो हिंदी-पंजाबी में अपने पति से दो दो हाथ भी कर लें,क्यूंकि वहां कोई आपको घूरता नहीं अपनी भाषा बोलने पर. दूसरे देशों में जहाँ अपनी ज़ुबान में बात करने पे लोगों को गर्व होता है, वो जानते बूझते भी दूसरी भाषा में कही बात को अनसुना कर देते हैं,वहीँ हम स्वदेश में ही अपनी मात्रभाषा को पराया कर चुके हैं. दूर धकेल रहे हैं हम अपनी इस पहचान को , सौतेला व्यहवहार है हमारा इसके प्रति.हिंदी कि इस दशा के, इस दिशाहीनता के, इस तिरस्कार के, जिम्मेदार हम हैं.वो बाज़ार कि भाषा है या गर्व कि अब यह हमें चुनना है .हिंदी का भविष्य हमारे हाथों में है और उसके अस्तित्व को चुनौती भी हमी से!!
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